<p style="text-align: justify;">दिल्ली का जनादेश आ गया है और जनता ने केजरीवाल को नकार दिया है. बीजेपी का मुख्यमंत्री कौन होगा यह कोई बड़ी बात नहीं है, बीजेपी के लिए. वह जिसे भी चाहेंगे वाह बना देंगे. भारतीय लोकतंत्र की यह खूबसूरती है कि यहां कोई अपने आप को शहंशाह समझने की भूल न करें और जनता उसको उसकी हैसियत बताती रहती है. हर बार, हर चुनाव दर चुनाव, कभी एक दो मौके दे देती है लगातार, कभी-कभी तीन भी मौके देती है लगातार, लेकिन कोई ये ना समझे कि चुनावी रणनीति में वो एक बार जीत कर आ गया है तो अगले 50 साल तक वो ही राज करेगा.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>आम आदमी पार्टी करे मंथन</strong></p>
<p style="text-align: justify;">देखिए, मैं एक लाइन सिर्फ सोचने को देता हूं. आज के दिन को अगर समझना हो तो मुझे लगता है कि सबसे बेहतर पूरे हिंदुस्तान में दो ही लोग समझ सकते हैं एक दिलीप पांडे दूसरे अवध ओझा. ये दोनों क्लासिकल एग्जांपल है. तिमारपुर से दिलीप पांडे बहुत अच्छा काम कर रहे थे, लोग उनसे बहुत खुश थे, वह बहुत सर्वप्रिय व्यक्ति है, मैं उनको आंदोलन के तौर से जानता हूं. उन्होंने यह नहीं कहा कि मुझे राज्यसभा भेज दीजिए या मुझे यहां टिकट दीजिए या मुझे यहां पद दीजिए! वैसे व्यक्ति का टिकट कटते ही अधिकतम कार्यकर्ता भाजपा में चले गए थे. यह तथ्य है. अलग बात है कि दिलीप पांडे ने खुद कभी कोई टकराव नहीं किया, कभी किताब लिखते रहे तो कभी कुछ करते रहे, लेकिन ये एक उदाहरण है. चावल की हांडी का एक दाना देखकर ही पता चल जाता है न।</p>
<p style="text-align: justify;">कुछ करना, नहीं करना, भारतीय राजनीति में सरकार के लिए मुझे लगता है कि बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता है और दिल्ली जैसे अर्ध-राज्य में जो कि पूर्ण राज्य नहीं है कोई भी मुख्यमंत्री होगा और वो लड़ाई की जो बात है तो अरविंद केजरीवाल का पूरा पॉलिटिकल एग्जिस्टेंस ही सामने वाले से लड़ाई के आधार पर टिका हुआ है. बना भी उसी पर था, टिका भी उसी पर था. पिछले दो टर्म जो उन्होंने सरकार चलायी है 2015-2020 और 2020-2025 उस दौरान भी उन्होंने विरोध और लड़ाई की ही पॉलिटिक्स की हैं. ऐसा नहीं है कि वो उस वजह से वह काम नहीं कर पाए. जितना उनको करना था, जितनी उनकी हैसियत थी उन्होंने किया. लेकिन यह जनता का उनसे ऐसा क्या अलगाव हुआ कि आज ये दिन, आज ये नौबत आ पड़ी है.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>अरविंद केजरीवाल का अहंकार और पतन</strong></p>
<p style="text-align: justify;">मैं उसको ऐसा ही समझता हूं कि आदमी जब बिल्कुल स्वेच्छाचारी हो जाता है, तो दिक्कतें पैदा होती ही हैं! एक कहावत है कि ‘पावर करप्ट्स एंड अब्सोल्यूट पावर करप्ट्स अब्सोल्यूटली'(सत्ता भ्रष्टा करती है और पूर्ण सत्ता पूर्णतः भ्रष्टाचार करती है) तो मैं यहां पर भ्रष्टाचार से अलग जो व्यक्ति का, स्वंय का आचार और विचार है, उसके भ्रष्ट होने के तौर पर भी देखता हूं. आपको अपने लोगों की पहचान नहीं रह जाती, आपको अपने ताकत की पहचान नहीं रहे पाती, धीरे-धीरे खत्म होने लगती है. आप दूसरे की ताकत पर निर्भर होने लगते है. इसलिए दिलीप पांडे और अवध ओझा का नाम लिया है. फिर, एक बीजेपी का डबल इंजन वाला एक नेरेटिव है जो चल रहा है. कई जगह पर हम लोग देख रहे हैं कि वो चाहे यूपी हो, बिहार हो, गुजरात हो बहुत सारे स्टेट्स में इसी नैरेटिव के ऊपर, इसी परसेप्शन के ऊपर बीजेपी को थोड़ा सा EDGE मिलता है कि केंद्र और राज्य दोनों ही जगह वही रहेंगे तो अच्छा चलेगा.</p>
<p style="text-align: justify;">हालांकि, मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि यह विकास के लिए कोई आवश्यक शर्त नहीं है. दिल्ली की स्थिति बाकी राज्यों से इसलिए अलग है क्योंकि वह वाकई बड़ी संवेदनशील है. भारत की राजधानी दिल्ली है, इस वजह से शीला दीक्षित के समय भी ऐसा नहीं था जो मेरी जानकारी है, कांग्रेस के समय में भी जब आखिरी बार कांग्रेस की सरकार थी और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थीं, तब भी वहां टकराव होता था. गृह मंत्रालय बनाम दिल्ली के मुख्यमंत्री में टकराव होता था. उसमें 10 जनपथ को हस्तक्षेप करना पड़ता था और वहां से शीला दीक्षित जीत कर आती थीं. आम आदमी पार्टी के साथ एक दिक्कत यह रही कि इनकी शुरुआत ही तब हुई जब केंद्र में नरेंद्र मोदी एक अपराजेय नेता के तौर पर आए और उनके लिए भी दिल्ली एक चुनौती थी. वह सोचते तो होंगे ही कि पूरी दुनिया जीत रहे हैं, लेकिन दिल्ली जो नाक के नीचे है, उसको नहीं जीत पा रहे.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>टकराव के लिए भाजपा भी दोषी</strong></p>
<p style="text-align: justify;">अकेले मैं अरविंद केजरीवाल को हालांकि इसके लिए दोषी नहीं मानता हूं, कुछ हद तक बीजेपी को मानता हूं क्योंकि दिल्ली की सात लोकसभा सीट पर जनता ने उनको जिताया है. अब तक वहां पर स्प्लिट वोटिंग पैटर्न रहा है, लोकसभा में पूरी की पूरी सीटें जनता बीजेपी को दे देती थी विधानसभा में अरविंद केजरीवाल को दे देती थी. तो ऐसे दो टर्म 10 साल लगातार सरकार चलाना, यह भी कोई छोटी बात नहीं थी. काम तो कुछ किया ही था उन्होंने. जनता से जुड़े हुए चाहे वह अस्पताल के मसले हो, शिक्षा के मसले हो, स्वास्थ्य के मसले हो, ट्रांसपोर्टेशन वगैरह की बात हो जिसमें कि फ्रीबीज जिसको कहा गया जिसको बीजेपी ने अभी माना कि वह भी इसको चलाएंगे बल्कि हम ज्यादा चलाएंगे तो लोगों को लगा कि इनको भी मौका दिया जाए. इतने अधिक टकराव से लोग शायद ऊब जाते हैं कि भाई चलो एक बार डबल इंजन ही करके देखते हैं. शायद कुछ अच्छा हो जाएय </p>
<p style="text-align: justify;">अभी तो स्थिति यह थी कि पहले केजरीवाल कहते थे कि एमसीडी में बीजेपी है तो काम नहीं हो पा रहा है लेकिन आखिरी कुछ समय पिछले एमसीडी से तो दोनों जगह पर यह लोग एक थे फिर भी दिल्ली बेहाल थी. हालांकि, मेरा मानना यह है कि आम आदमी पार्टी की आंतरिक राजनीति है. आंतरिक अपना उनका राजनीतिक सिस्टम है उसमें भी समस्या है. आप देखेंगे इस बार बहुत सारे नेताओं ने कांग्रेस और बीजेपी से टिकट लिया है यह चीज जो जमीनी स्तर पर है जो इनके पार्षद या इनके कार्यकर्ता हों, उनको पच नहीं रहा है. </p>
<p style="text-align: justify;">हां, अरविंद केजरीवाल को उनका ओवर कॉन्फिडेंस और अहंकार भी ले डूबा. उनको लगता था कि वही नेता हैं, अकेले हैं, सर्वमान्य हैं, वह जिसको चाहेंगे जिता देंगे, जैसा कि आखिरी दो चुनावों में हुआ भी 67 और 62 सीटें ये लोग जीते थे. अब मुझे लगता है कि रिजल्ट के बारे पता नहीं इन्हें कितना मौका मिलेगा, इस बात का मंथन करने के लिए कि क्या गलतियां हुई? हालांकि, अरविंद केजरीवाल का जो राजनीतिक सेटअप है, वह बहुत ज्यादा एकीकृत और केंद्रीकृत हो गया था. यही उनकी हार का सबसे बड़ा कारण भी है. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] </strong></p>
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