सबसे छोटा दिल्ली का अर्द्ध राज्य और मिल्कीपुर के उप-चुनाव ने भारतीय राजनीति को हिला कर रख दिया. ये भी उजागर हुआ कि क्षेत्रीय दल इस स्थिति में नहीं है कि संगठित भाजपा से मोर्चा ले सके. अब देखना है कि क्या इन हालातों में इंडिया गठबंधन कोई सबक लेगा या विनाश की और बढ़ेगा.
अहंकार की तो गुंजाइश ही नहीं है. मिल्कीपुर अगर समाजवादी पार्टी ने खोया तो इनके नेता, अखिलेश यादव का अति विश्वास और एक्नायकत्ववाद इसके लिए जिम्मेवार है.
वैसे ही दिल्ली ने साबित कर दिया कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल की सूझबुझ की कमी और हठधर्मिता ने आम आदमी पार्टी को एक जीता हुआ चुनाव हरा दिया. वे आज कांग्रेस को कोस रहे होंगे, पर उन्हें अपना रिकॉर्ड भी देखने की जरूरत है. लोग यही सोचते है कि वे तो भाजपा के “बी” टीम है.
दिल्ली के आलावा और सभी जगहों पर उन्होंने जैसे काम किया, उससे तो कांग्रेस को ही नुकसान हुआ. गोवा में उनका कोई वर्चस्व नहीं था, पर वे चुनाव लड़े, वोट काटे और कांग्रेस सत्ता से दूर रही.
ऐसा ही उन्होंने गुजरात में किया. हरियाणा में कांग्रेस इंडिया गठबंधन के तहत उनको सात सीटें देना चाहती थी. केजरीवाल ने कहा वे 90 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. फिर कांग्रेस 1 प्रतिशत वोट के व्यवधान से सरकार नहीं बना पाए.
दिल्ली में भी कांग्रेस गठबंधन करना चाहती थी, पर केजरीवाल ने मना कर दिया. अब कांग्रेस की बारी थी निबटने की. कांग्रेस दमखम से चुनाव लड़ी. उनका वोट 4 प्रतिशत से करीब 6.4 प्रतिशत हो गया और आम आदमी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई. केजरीवाल, उनके उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, मंत्री सौरभ भरद्वाज और तमाम नेता चुनाव हार गए.
कांग्रेस के उम्मीदवारों ने उतने ही वोट काटे जितना की उनकी जीत के लिए जरूरत थी. ऐसी 15 सीट है जहां कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को शिकस्त दी. मुख्यमंत्री आतिशी भी बमुश्किल अपनी सीट निकाल पायी. साथ रहने पर हो सकता है कि और सीटों पर भी गठबंधन का असर पड़ता. राजनितिक हलकों में तो इसे एक पार्टी द्वारा आत्महत्या कहा जा रहा है.
केजरीवाल ने इस तरह लोगों का विश्वास खो दिया. वे भूल गए की 2013 में उन्हें कांग्रेस के ही वजह से सरकार बनाने का मौका मिला और वे जिस वोट पर काबिज है वह कांग्रेस का वोट है और अब यह उनके पास वापस जा रहा है.
छोटे दल चाहे वह तृणमूल कांग्रेस हो या समाजवादी, आशंकित रहते हैं कि कांग्रेस अपने वोट वापस ले सकती है. इसी वजह से वे इंडिया गठबंधन तो चाहते है पर कांग्रेस से दूरी बनाकर. दिल्ली, मिल्कीपुर में वे कामयाब नहीं हुए. अगर महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में छोटी पार्टियाँ 2024 के लोकसभा चुनाव सफल हुईं तो इसका कारण भी कांग्रेस का साथ होना ही था. साथ रहें तो बढ़ें नहीं तो कटे.
क्या अब भी इंडिया गठबंधन के साथ रहेंगे या हर कोई अलग चलना चाहेगा? कांग्रेस पूरे भारत की विविधता को समेटकर ही बनी. ये अपने गौरवशाली समय में भी एक को-अलिशन था. आज भी है. कांग्रेस का ही सदस्य उत्तर भारत के रायबरेली और दक्षिण के केरल के वायनाड से रिकॉर्ड वोट से आज भी चुनाव जीतता है.
अगर विपक्ष इस बात को समझ सकता है तो वे कांग्रेस का साथ लेकर ही विविधता से भरे इस देश में आगे बढ़ सकते हैं. भाजपा शक्तिशाली है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनकी ताकत को बढ़ाती है. उन्हें चुनाव लड़ने की कला पर महारत हासिल है. किसी और दल में शक्ति नहीं है कि उसका अकेले मुकाबला करें. योगी ने सही कहा है कि बटोगे तो कटोगे. विपक्ष पर यह सबसे ज्यादा लागू होता है.
मुल्क को भी शक्तिशाली राजनीतिक दलों की जरूरत है. दिल्ली और मिल्कीपुर चेतावनी है इंडिया गठबंधन के लिए. अगर यह गठबंधन नहीं रहेगा तो तमाम क्षेत्रीय दल संकट में हो सकते है. यह समय साथ बैठकर पुनर्विचार करने का है.
जनता एक शक्तिशाली विपक्ष चाहती है जो संसद, GST कौंसिल और सड़क पर एक जोरदार आवाज से जनता के मुद्दों को उठा सके. ऐसा समूह जो राष्ट्रीय और विदेशी मामलों पर नया विचार दे सके, मध्य पूर्व हो या रुस-यूक्रेन पर भारत की आवाज बुलंदी से उठा सके. जो यह कर सके जनता उसके साथ होगी. सभी राजनीतिक दलों को इन पर विचार कर रास्ता निकलना चाहिए. क्या वे ऐसा कर पाएंगे? जनता राह तलाश रही है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]